Monday, April 28, 2008

रूह-ऐ-गालिब का असर है, की मैं ख़ुद नही लिखता,
कोई बचाए की मुझे अभी वक़्त है, उनतक जाने में।

और भी हैं तुझ पे फ़िदा होने वाले, अकेले,
मुन्किर-ऐ-वफ़ा ही मिलते हैं तुझको ज़माने में!

अब आ भी जा की शब-ऐ-इंतज़ार दर’किनार हो,
उम्र-ऐ-रफ्ता गुज़र न जाए तेरी, हमें आजमाने में।

………………Atul

5 comments:

pallavi trivedi said...

अब आ भी जा की शब-ऐ-इंतज़ार दर’किनार हो,
उम्र-ऐ-रफ्ता गुज़र न जाए तेरी, हमें आजमाने में।
kya baat hai...wah.ye sher kuch jyada pasand aaya.

Atul Pangasa said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

What has happened ,You are not the same atul i used to know .This stuff i am telling you has reminded the ghalib ,mir etc .

डॉ .अनुराग said...

रूह-ऐ-गालिब का असर है, की मैं ख़ुद नही लिखता,
कोई बचाए की मुझे अभी वक़्त है, उनतक जाने में।

और भी हैं तुझ पे फ़िदा होने वाले, अकेले,
मुन्किर-ऐ-वफ़ा ही मिलते हैं तुझको ज़माने में!


बहुत खूब.....पहला शेर खास तौर से दिल ले गया .....हिन्दी में देखकर जी खुश हुआ

Purnima said...

और भी हैं तुझ पे फ़िदा होने वाले, अकेले,
मुन्किर-ऐ-वफ़ा ही मिलते हैं तुझको ज़माने में!


kya gazab likha hai
fantastic....