नज़र मिल ही गई थी तो खूं-ऐ-दिल-ऐ-बेताब की जुस्तजू में क्या फै था,
सबब क्या हुआ तेरे दामन-ऐ-सुर्ख में एक और दाग छोड जाने का।
जहाँ-ऐ-तंज़-ओ-बद्गुम्मान भी देखे हैं खाना-ऐ-बद से होते आलम में,
एक तुम भी कुछ कुफ्र-ऐ-दिल-ओ-परेशान कह जाते तो कुछ न बिगड़ता ज़माने का।
………………………Atul
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